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जिंदगी में मोबाइल या मोबाइल में ही जिंदगी।मोबाइल के प्रयोग से बढ़ती पारिवारिक दूरियां।

 


गब्बर सिंह वैदिक

लोकल न्यूज ऑफ इंडिया



आज के समय में संचार का सबसे सरल व सीधा माध्यम है मोबाइल फोन तथा टेलीविजन।वैसे तो संचार के और भी साधन है जैसे रेडियो,इंटरनेट,फैक्स,रडार व टेलीप्रिंटिंग आदि।इन सब के प्रयोग से समाज और परिवार पर बुरा असर नहीं पड़ा।

बचपन मे जब हमारे घर मे भी टेलीफोन लगा तो आस-पास के लोगों बड़ी सुविधा मिली थी।वह भी एक दौर था जब लोगों का सन्देश पहुंचाने दूर-दूर तक जाना पड़ता था।आवाज सुनने मात्र से दिल को सुकून मिल जाता था।

जब जवान हुए तो दौर आया मोबाइल फ़ोन का।जिसके पास मोबाइल फोन होते थे लोग उसे साहूकार मानने लगे।मोबाइल के प्रयोग से हर काम तेजी से होने लगे।इसमें बात करने के साथ साथ सन्देश भी लिखकर भेज सकते थे।जिस कारण सभी लोग मोबाइल रखना अनिवार्य समझने लगे।

धीरे-धीरे दौर आने लगा सोशल मीडिया का।पहले परिवार में एक ही व्यक्ति एंड्रॉयड फोन रखता था।उसमें फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब आदि चलने लगा।जिससे सभी लोग काफी सुविधा महसूस करने लगे और परिवार का हर व्यक्ति एंड्रॉयड रखने लगा और परिवार में दूरियां बढ़ने लगी।

कोविड काल मे जब सभी लोग घर मे कैद हुए तो सभी अकेलापन महसूस करने लगे।कई ब्लॉग बनाने लगे,कई फेसबुक ,यूट्यूब,इंस्टाग्राम व तरह तरह की सोशल मीडिया साइट्स पर सक्रिय रहने लगे।

बच्चों में यह एक तरफ जहां मनोरंजन के स्वस्थ साधनों के प्रयोग को कम करने का खतरा पैदा करता है, वहीं दूसरी ओर माता-पिता के साथ पर्याप्त समय न बिता पाने के कारण एकाकीपन के बोझ को भी बढ़ाता है। इन मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावों के अतिरिक्त शारीरिक स्वास्थ्य पर भी मोबाइल के अधिक प्रयोग के दुष्परिणाम देखने में आ रहे हैं।

आज आलम यह है कि समाज मे कुछ भी गतिविधियां हो जैसे शादी-विवाह,मरना-जीना,सुख-दुख,धार्मिक या कोई अन्य आयोजन हो तो,न कोई बातचीत, न कोई अपनापन, न ही कोई नाता रिश्ता सिर्फ और सिर्फ मोबाइल... मोबाइल...मोबाइल।

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