गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||
राजेन्द्र सिंह
जैसे माता के बिना बालक नही रह सकता । जल के बिना मछली और भोजन के बिना अन्नमयी शरीर नही रह सकता ।ऐसे ही गुरु के बिना शिष्य का सफल जीवन मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है गुरु के जीवन में होना सिर्फ इतना ही नही है,कि आप उनको देखते हो ,मिलते हो या आप उनको सुनते हो ,अथवा आप उनको कभी -कभी कुछ धन या वस्तुएं अर्पित कर देते है।गुरु का मिलना तब होता है जब गुरु का साथ तुम्हारा साथ हो जाये।गुरु का वैराग्य तुम्हारा वैराग्य हो जाये।अगर ज्ञान सिर्फ कानों तक रह जाये और मन मे भाव ज्यादा आ गया गुरु के लिए कभी कम हो गया तो बात अधूरी है प्राण के बगैर ये शरीर नही चल सकता ठीक उसी तरह गुरु और शिष्य का रिश्ता है।शिष्य का गुरु से आध्यात्मिक रिश्ताहोता है ,न कि सामाजिक और आर्थिक ।इसलिए हमारी परिस्थितियां चाहे अनुकूल हो या फिर प्रतिकुल ।हमारा मन ,मस्तिष्क अज्ञानता ,मोह,भृम और अविद्या को दूर करने में भरसक लगा रहे ,लेकिन गुरु कृपा के बिना यह प्रयास सफल नही हो सकता ।जैसे माता-पिता का स्वरूप व स्वभाव बच्चे की शक्ल से मिलने लगता ,भले ही गुरु व शिष्य में शरीर का सम्बंध नही है ,लेकिन गुरु के साथ नाद का सम्बंध होता है ,नाद अर्थात शब्द ,नाद अर्थात ध्वनि ।गुरु के मुख से निकले शब्दो व गुरुवाणी को सुनने मात्र से शिष्य को ज्ञान ही नही मिलता उसका जीवन भी बदल जाता है ।सच तो यह है ,मां गर्भ से जन्म देती है,और दूसरा जन्म गुरु के सानिध्य पाने से मिलता है,इसलिए हम गुरु के दिये गए इस जन्म को द्विज कहते है ,जिसका दो बार जन्म हुआ हो।अज्ञानता के अंधकार से बाहर निकालकर ज्ञान के सागर में पहुचाने वाला सिर्फ गुरु ही होता है, ऐसे शिष्य को हम गुरु का पुत्र या गुरु की संतान कहते है।इसलिए शिष्य गुरु की नादी- संतान होता है। उसे शब्द से उत्पन्न संतान कहा जाता है।ठीक वैसे ही जैसे जन्म देने वाले पिता के लक्षण दूसरे बच्चे में दिखाई पड़ते है,यही लक्षण गुरु की कृपा में दिखाई पड़ने लगते है।सम्पूर्ण रूप में न सही तो आंशिक रूप में यह लक्षण अवश्य शिष्य में देखने को मिलते है।
महत्वपूर्ण बात यह है,कि हम सभी को अपने चित्त व अंर्तमन में झांककर देखना चाहिए ।कि क्या गुरु की प्राप्ति के बाद यह ज्ञान हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर पाया है?। गुरु का वैराग्य और मस्ती की झलक शरीर मे प्रवेश कर चुकी है। गुरु का निश्चय व शास्त्रों का ज्ञान दस्तक देने लगा हो।आंशिक रूप में ही सही। या फिर अभी भी लोभ ,मोह ,आशा -निराशा के झंझावात में फंसे हुए है । इस पर गंभीरता पूर्वक चिंतन करना चाहिए ।यदि ऐसा है तो क्यों?जैसे किसी बच्चे व बच्ची को देखकर हम छूटते ही कह देते है कि यह लड़का है या लड़की। या फिर इसके माता- पिता कौन है, हाजिर जवाब होता है।नाम के साथ। तो फिर एक शिष्य को देखकर इस बात को सहज अंदाज क्यों नही लगता , कि इसका गुरु कौन ?। यह निश्चित रूप से एक बड़ा सवाल है ।संस्कार और ज्ञान ही शिष्य का आईना होता है ।
गौरतलब यह है, कि गुरु वैरागी हो और शिष्य भोगी तो बात नही बनती।गुरु ज्ञानवान हो और शिष्य अज्ञानी तो भी बात नही बनेगी ।महर्षि वाल्मीकि जैसे ऋषि हमारे समाज मे एक आदर्श है।शिक्षा के अभाव में ज्ञान की ऐसी गंगा उनके मन मस्तिष्क में बही । कि उन्होंने वाल्मीकि रामायण की रचना कर डाली ,लेकिन इस लक्ष्य तक पहुचने में उनकी भक्ति भावना और लगन प्रगति का मार्ग रोशन करती रही।देवऋषि नारद का सानिध्य वीरान जंगल मे उन्हें मिला और उन्होंने बाल्मीकि जी को बुराइयों का त्याग कर अच्छे कार्य एवं राम नाम जपने का उपदेश दिया ।जिसके बाद वाल्मीकि जी ने साधना कर ब्रह्मा जी के दर्शन किया और जिसके बाद उन्होंने वाल्मीकि रामायण की रचना कर डाली।
यदि किसी अज्ञानी ,निरक्षर व नास्तिक शिष्य को भी गुरु का सानिध्य अंश कालिक भी मिल जाये तो उसे ज्ञानवान और सफल बनने से कोई नही रोक सकता ।सारी बाधाएं गुरु कृपा से दूर हो जाती है । ब्रह्मवेत्ता गुरु का शिष्य अज्ञानी हो ही नहीं सकता । अगर इसके बावजूद शिष्य अज्ञानी है तो यह समझ लेना चाहिए की अभी शिष्य का गुरु से सम्बन्ध बना ही नही है ।
अध्यात्म के छेत्र में पारंगत नही हूं क्योंकि यह अपने आप मे बहुत विशाल और साधना का छेत्र है, लेकिन अपने अनुभव से इतना जरूर कह सकता हूँ। कि गुरु रूपी सन्त जब जीवन मे , किसी भी व्यक्ति के आ जाता है तो गुरु का सानिध्य उसकी दिव्य शक्ति और साधन से प्राप्त ऊर्जा का संचार होते ही शिष्य का जीवन बदलने लगता है ,सोच -विचार,आचरण ,व्यवहार ,वस्त्र ,
वाणी, भाषा,जीवन का संकल्प ,लक्ष्य मन की चाहतें सब कुछ बदल जाती है । अहंकार स्वतः चला जाता है मेंरे जीवन मे भी सद्गुरु की कृपा है ।संत शिरोमणि सद्गुरु ऋतेश्वर महाराज जी का सानिध्य पाने के बाद आमूल- चूल बदलाव हुआ है।भक्ति भावना के साथ वृंदा वन की पवित्र रज को माथे से लगाने का सुअवसर जो प्राप्त हुआ ।यह सब गुरुदेव की कृपा से ही संभव हुआ।मैने सुना, पढा, देखा और अब वास्तविक रूप में महसूस कर रहा हूं सबके जीवन मे एक ज्ञान- वान गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका है जिसका सानिध्य पाने के बाद आपका जीवन निष्काम भगवत प्रेम की ओर बढने लगेगा।और शेष बचे जीवन मे अच्छे कार्य -व्यवहार व साधना के माध्यम से पापों से मुक्ति पाकर भगवत प्रेम में मस्त हो जाएंगे।लेकिन यह डगर आसान भी नही है,जब तक आप पर हरिकृपा नही होगी, आपको गुरु के दर्शन नही होंगे ,आपके जीवन मे किसी सुयोग्य गुरु की दस्तक नही होगी और यदि आपको कोई ज्ञानवान गुरु मिल जाता है तो आप समझ ले हरिकृपा आप पर हो चुकी है,आपका जीवन बदलने वाला है आपका फालतू समय कही और नही बल्कि हरि साधना में व्यतीत होने वाला है यह शुभ संकेत किसी व्यक्ति के जीवन मे अच्छे दिन आने का संकेत है ऐसा कहा जा सकता है।इस लिए जब भी किसी गुरु के दर्शन व सानिध्य पाने का मौका मिले तो समझो आपकी लाटरी लग गयी है जीवन को धन्य बनाने की। इस मौके को तमाम व्यवस्ता के बाद भी छोड़ने की गलती नही करनी चाहिए क्योंकि गुरु ही आपकी बिगड़ी सुधार कर नए जीवन को कर सकता है शुरू।
माता -पिता से संतान का जो सम्बंध है, ठीक उसी तरह गुरु और शिष्य का सम्बंध है ,माता-पिता संतान को जन्म देते है, तो गुरु इस जन्म को सुधार देता है,जिसके जीवन मे गुरु नहीं, उसका जीवन समुद्र की कश्ती जैसा होता है कब तूफान आ जाए और कश्ती डूब जाए। लेकिन यदि आपके जीवन को एक ज्ञानवान गुरु का सानिध्य मिल रहा है , तो आप निश्चित ही विपरीत परिस्थितियों में भी किसी भी संकट और तूफान का सामना करने के लिए मजबूती के साथ तैयार रहेंगे । गुरु कृपा के बिना जीवन नीरस रहता है,अज्ञानता,अहंकार,मोह,स्वार्थ
यह सब आपको हरिकृपा से वंचित रखेंगे। और यदि जीवन मे एक गुरु है, तो उसके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा ,दीक्षा और संस्कार जीवन मे कभी भी आपको कमजोर नहीं होने देंगे । हमेशा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाला गुरु ही आपको किसी भी संकट से बाहर निकालने में सक्षम है। यही वजह है, की गुरु शिष्य की परम्परा का महात्म हम सबको जानना सुखमय जीवन की अनमोल कुंजी है।
(लेखक वरिष्ठ एवं स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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