विजय शुक्ल
लोकल न्यूज ऑफ इंडिया
हाल में हर तरफ उत्सव सा माहौल था गाँव आजाद हवा में उत्सव का आनंद उठा रहे थे तो शहर जहरीली हवा की कैद में। उत्सव दोनों जगह था कही थोपी गई पाबंदी के साथ तो कही अपनों को निहारती आँखों में बसी उम्मीद के साथ। बचपन में त्यौहार मतलब परिवार का एक साथ होना , पड़ोसियों का एक साथ होना ,पूरे टोले का एक साथ होना और अलग अलग टोले मिलकर पूरे गाँव के साथ होने की नुमाइंदगी करते देखना और आनंद लेने की वो खुली आँखों वाली अनुभूति का अब भी यादो में होना। गाँवों में गरीबी सरकारी तंत्र और सरकार की सुविधाओं के ना पहुँचने से थी पर गाँव गरीब नहीं थे। उनकी अपनी संस्कृति और खेती किसानी बागवानी की व्यवस्था के साथ साथ एक दूसरे के प्रति लगाव की उनकी अमीरी के सामने बड़े बड़े फ़कीर नजर आते थे। गाँव , माटी और ताल तलैया के साथ साथ पशुधन के साथ मालामाल था। और उसकी अमीरी को गरीब दिखाने वाला कोई बाजार तब शायद नहीं ही था।
फिर बाजार बढे और गाँव उन बाजारों से गुजरते गुजरते अपनी गरीबी को झाँकने और आंकने की कोशिश में लग गए और तब शुरू हुआ खेती की बजाय चाकरी का दौर और सरकारी दुकान से उधारी का दौर। यह दौर ऐसा हुआ कि गाँव समझ ही नहीं पाया बस वो अपने आपको अमीरो की उस दुकान से बड़ी दुकान बनाने की होड़ में लग गया जो आगे चलकर उसकी फकीरी का आलम बना। सरकारों को समझ में आ गया था कि सत्ता की चाभी गाँवों में बसती हैं इसलिए उन्होंने शुरू से ही ग्रामीण योजनाओ की ऐसी बंदरबांट व्यवस्था बनाई की कागजो में सब कुछ मिले पर गाँव की चौखट तक सिर्फ लाचारी बचे। धीरे धीरे पंचायतीराज की मजबूत जड़े भ्रष्टाचार और अपने अपने घरो की पक्की चारदीवारी बनाने और ईंट भट्ठों के माइल बनने तक पहुंचकर रह गई और गांव तिरस्कार होता रहा। पर तब भी गाँव आनंदित होता था कोटे में मिलने वाले कम केरोसिन और चीनी के बावजूद भी लोगो में मिठास जबरदस्त थी और खेत अन्न का खजाना भरपूर दे रहे थे क्योकि मेहनतकश गाँव को खेत और उनकी युवा पीढ़ी को काम करने का शौक था।पढाई और खेल के साथ खेतो में बगीचों में काम करने की ललक उस समय हर टोले मोहल्ले में थी।
फिर धीरे धीरे राजनीती में जातपात और धर्म का जहर घोलकर गाँव में फैलाया गया जिसको गाँव ने समझा पर अपने आने वाली पीढ़ी को सही से शायद समझा नहीं पाया और टेलीविज़न के रुपहले परदे को देखते हुए गाँव अपनी कंगाली और बदहाली को दूर करने का रास्ता ढूंढने शहर की तरफ बढ़ा और कमाते हुए तस्वीर बदलने की कोशिश शुरू की अपनों की अपने गाँव में बसे परिवारजनों की। हर तीज त्यौहार ,आस पड़ोस की बच्चियों से लेकर साथियो की शादी समारोह हो या भजन कीर्तन या फिर गाँव के किसी बड़े बुजुर्ग के जाने की खबर से गाँव भागकर शामिल होने की वो ललक शुरुवाती दिनों तक बनी रही और जब कोई शहरी बाबू आता तो अपने साथ गाँव के लालटेन के उजाले में शहर की चमकीली यादे बिखेर जाता जो दो चार और गाँव में लाचार, बेरोजगार बैठे युवाओ और अधेड़ उम्र के लोगो को शहर का रास्ता रूख करने का लालच देती। कुछ जाकर वापस आ जाते यूं कहे कि उनके अंदर के गाँव की अमीरी पर शहर की छलावे वाली अमीरी का रंग चढ़ ही नहीं पाता था।
फिर वक़्त में आमिर होते लोगो के पास वक्त की कंगाली और मजदूरी कर रहे लोगो की आर्थिक बदहाली ने गाँव के तीज त्यौहार से सबको दूर कर दिया ऐसा किया कि आज भी उनके बूढ़े मान बाप काका काकी उनकी राह देख रहे हैं इस उम्मीद के साथ कि इस बार उनके अपने बच्चे अपनों बच्चो के साथ आएंगे और गाँव के उनके आँगन में खुशहाली आएगी। पर गाँव आया कौन ? इसमें मैं और आप सब शुमार हैं और हमने तो अब शहर में अपना गाँव अपने तीज त्यौहारों में खोजने की कोशिश में उस पूरे आस्था और उत्सव की धमक को धूमिल कर दिया। गाँव गया और मान सम्मान भी। पर आज भी गाँव का सरसो का तेल हो या गाँव में माँ के हाथ के बने हुए मिठाई की मिठास सबको अच्छी लगती हैं। बचपन गाँव जाना चाहता हैं और हम उसको रोकते हैं। त्यौहारों पर ही काश हम गांव लौटकर अपने होने का एहसास कर पाते पर नहीं साल भर मशीनी कमाई की होड़ में अपने और अपनों को कम आंकते आंकते हम इतने कंगाल हो गए कि हम सब अपने ही घर परिवार की संयुक्त ढांचे को तोड़ बंटवारे की राह पकड़ रहे हैं और यक़ीनन इसमें हमारे अपनों की ही गलती हैं क्योकि शहर ने कभी किसी को एक करने का सिस्टम ही नहीं रखा यहाँ तो बस बंटवारा था और अब यह बंटवारा अलग अलग क्षेत्र से आये हुए लोगो के आकड़ो में राजनीती के ताल तलैया में गोते लगा रहा हैं। और उसी में गोते लगा रही हैं हमारी आस्था। नाले और सोसाइटी के स्विमिंग पूल या पार्क में गड्ढो में छठ मैया जैसा आस्था का पावन पर्व मना रहे हैं। नदियों में सीवर और फैक्ट्रियो के गंदे पानी से झाग निकल रहा हैं और हमें उसमे खड़े होकर राजनेताओ के बैनर पोस्टर की तिरपाल तले फाग गाना पड़ रहा हैं और गाँव को हमारी आने की उम्मीद जोहनी पड़ रही हैं।
पलायन और पर्व का अपना गहरा नाता हैं पर पॉलिटिक्स ने इस नाते को पकाकर गाँव को दरकिनार करते हुए गाँव के खात्मे का पूरा तंत्र बना रखा हैं और अब मुफ्त के राशन और बिजली पानी का स्वांग रचते हुए हम पर एहसान दिखाते हुए उसका दस गुना ज्यादा प्रचार पर लुटा रही पार्टियां पर्व पर पार्टी मनाने का जुगाड़ कर गाँव को कंगाल और बाद में बिका हुआ बाजार बनाने का सपना सजोये हैं और उसके जिम्मेदार हम ही हैं क्योकि हम गाँव जाना ही नहीं चाहते हैं।
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